पिछले दिनों मुझे एक पारिवारिक आयोजन में जयपुर जाना पड़ा। वहां एम.बी.ए. की शिक्षा प्राप्त कर रहे एक युवक ने मुझसे बड़ी ही मासूमियत के साथ पूछा कि अंकल! किसी भी काम को एक बार करके देखने में क्या बुराई है? यदि कोई कार्य गलत है तो हम एक बार अनुभव के बाद स्वयं छोड़ देंगे। युवक को विश्वास था कि अमेरिका में रहने के कारण मैं उसकी स्वतंत्रता के अधिकार का समर्थन करूंगा इसके विपरीत मैंने उससे कहा कि शास्त्र इस जीवन शैली का समर्थन नहीं करते। युवक की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी: ''अंकल, आजकल शास्त्र को कौन मानता है? क्या आपको लगता है कि प्राचीन ग्रन्थ आज की युवा पीढ़ी की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं?''
मैंने युवक को विस्तार से समझाने का प्रयास करते हुए कहा कि सवाल यह नहीं है कि शास्त्र को कौन मानता है और कौन नहीं। पहले हमें यह समझना चाहिए कि शास्त्र में जो कहा गया है वह सत्य है कि नहीं। यदि हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शास्त्र सत्य है तो हमें उसकी मान्यताओं को अपनाना चाहिए एवं इस बात को नहीं देखना चाहिए कि दूसरे लोग उसको किस रूप में या परिमाण में अपना रहे हैं। उदाहरण के लिए शास्त्र कहता है कि व्यक्ति को कोई नशा छूना भी नहीं चाहिए। यह ज्ञान हमें परम्परा से प्राप्त हुआ है एवं इसके साथ जुड़ी हुई सामाजिक मर्यादा भी हमें किसी नशे को हाथ लगाने से रोकती है। अनुभव करने की इच्छा से यदि कोई युवक परंपरा से प्राप्त ज्ञान की अवहेलना करते हुए किसी नशे का स्वाद चखता है तो स्वाभाविक रूप से उसकी आंखों की शर्म व हया समाप्त होती है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि शर्म व हया केवल एक बार की होती है। जो व्यक्ति एक बार लज्जा को त्याग देता है तो बाद में वही कार्य करने में उसे लज्जा का कम अनुभव होता है एवं दो-चार बार के बाद तो वह पूरी तरह समाप्त हो जाती है।
सम्भव है कि किसी नशे का स्वाद एक बार चखने के बाद युवक यह अनुभव करे कि यह गंदी चीज है एवं निश्चय कर ले कि इसे भविष्य में कभी भी हाथ नहीं लगाना है। विज्ञान के अनुसार जीवन में मनुष्य जो भी अनुभव एक बार प्राप्त करता है उसकी छाप उसके मस्तिष्क में अंकित हो जाती है। वर्षों बाद समय एवं परिस्थिति अनुकूल होने पर वह पुनः उसी अनुभव को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को प्रेरित करने का कारण बन सकती है। व्यक्ति के जीवन में सफलता-असफलता के क्षण आते ही हैं, जिनमें वह अपनी खुशी को सेलिब्रेट करने अथवा निराशा से मुक्त होने के प्रयास में पुनः उसी नशे की ओर उन्मुख हो सकता है। धीरे-धीरे यह उसकी आदत बन जाती है जिसका ज्ञान उसे बहुत बाद में होता है। इस मनोवैज्ञानिक सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता है।
वास्तव में किसी भी अर्धसत्य के आधार पर हमें सदियों पुरानी परंपरा से प्राप्त अनुभवजन्य ज्ञान को नकारने की बजाय पूर्ण सत्य को जानने की कोशिश करनी चाहिए। उदाहरण के लिए परंपरा कहती है कि गंगा पवित्र है एवं इसमें स्नान करने से पुण्य प्राप्त होता है। इस ज्ञान के आलोक में यदि हम किसी युवक को हुगली के पास गंगा में स्नान करने के लिए कहें तो वह हमारी बात को स्वीकार नहीं करेगा। गंगा से जुड़ी हुई मान्यता को समझाने के लिए हमें युवक को गंगोत्री लेकर जाना होगा जहां गंगा की निर्मलता एवं स्वच्छता को देखकर वह आसानी से हमारी बात को स्वीकार कर सकता है। इस वार्तालाप के बाद जयपुर के युवक ने मेरी बात से सहमति प्रकट की।
आज के शिक्षित युवक की सोच एवं कार्य भूमण्डलीकरण एवं मीडिया के प्रभाव से उत्पन्न अर्धसत्य से प्रेरित हैं जिसको पूर्ण सत्य की जानकारी प्रदान करके ही सही दिशा दी जा सकती है। इसके लिए हमें अपने पारंपरिक ज्ञान एवं जीवन मूल्यों को वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार प्रदान करते हुए युवा पीढ़ी को इनके प्रति आकर्षित करना होगा ताकि उसके मन में अपनी परंपरा के प्रति गौरव की अनुभूति हो एवं उसे अपनाकर वह जीवन में आनंद एवं प्रसन्नता का अनुभव कर सके।
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