सुप्रसिद्ध विद्वान अरस्तू की उक्ति है "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है"। मनुष्य जैसे समाज में रहता है वैसी ही उसकी सोच, वैसा ही उसका रहन-सहन, वैसा ही उसका खान-पान एवं वैसे ही उसके मनोरंजन के साधन बन जाते हैं। कम्प्यूटर, इंटरनेट, टी.वी., सेटेलाइट चैनल, डी.जे., कैबरे, फिल्म इत्यादि के वर्तमान दौर में मनुष्य का सामाजिक जीवन अपने आप में सिमटता चला जा रहा है। हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा कही गई उक्ति "वसुधैव कुटुम्बकम्" आज पूरी तरह से साकार हो चुकी है। इस स्थिति में विभिन्न देशों की संस्कृतियों में मेल होना स्वाभाविक है। परिणाम यह है कि एक ओर वह लोग हैं जो पाश्चात्य संगीत, पाश्चात्य जीवन मूल्यों, मनोरंजन के पाश्चात्य साधनों को बड़ी तेजी से अपना रहे हैं, तो दूसरी ओर वे लोग हैं जो पाश्चात्य संगीत, पाश्चात्य जीवन मूल्य एवं आदर्शों का आंख मूंदकर विरोध कर रहे हैं। इस प्रकार की दोनों ही स्थितियां सामाजिक-पारिवारिक जीवन में नाना प्रकार की समस्यायें उत्पन्न कर रही हैं, जिनके प्रति समाज को स्वतः जागरूक होने की आवश्यकता है।
आज समाज में आयोजित होने वाले पर्वों एवं त्योहारों में पूरे परिवार की सहभागिता कम होती जा रही है। साप्ताहिक अवकाश एवं पर्व-त्योहार पर परिवार के सदस्य अलग-अलग ग्रुप में मनोरंजन करते हैं। पिता किसी सामाजिक संस्था के कार्यक्रम में जाता है, तो पत्नी अपनी सहेलियों के साथ किटी-पार्टी में जाना पसंद करती है, बेटा अपने दोस्तों के साथ मनोरंजन का कोई दूसरा विकल्प चुनता है, तो बेटी घर में अथवा सहेलियों के साथ इन्टरनेट सर्फिंग करते हुए अपना समय व्यतीत करना पसंद करती है। सप्ताह के अन्य दिनों में तो सभी अपने-अपने काम में व्यस्त रहते ही हैं, लेकिन अवकाश के दिनों में भी परिवार के सदस्य एक साथ मिलकर मनोरंजन का कोई तरीका तय नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि आज पारिवारिक सम्बन्धों में आत्मीयता एवं लगाव का अभाव होता जा रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए भी हम एक-दूसरे की मानसिक स्थिति, सोच, समस्याओं, सुख-दुख से अनभिज्ञ रहकर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हैं।
यदि हम भारतीय पर्वों एवं त्योहारों की चर्चा करें, तो प्रत्येक पर्व एवं त्योहार के पीछे किसी न किसी देवी-देवता का प्रसंग जुड़ा हुआ है। इस प्रसंग से हमें एक विचार प्राप्त होता है, जो हमारे जीवन मूल्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता था। प्रत्येक पर्व एवं त्योहार में परिवार के सभी सदस्यों की ही नहीं वरन् आस-पड़ोस के सदस्यों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती थी। इस प्रकार परिवार एवं समाज को जोड़ने का काम हमारे पर्व एवं त्योहार किया करते थे। इन आयोजनों में मनोरंजन का पक्ष भी बहुत मजबूत होता था। होली के आयोजन में कोई दूसरा गीत नहीं सुनाता था, बल्कि सभी लोग स्वयं मिलकर होली के गीत गाते थे। एक-दूसरे से गले मिलकर होली की शुभकामनाएं दिया करते थे। सभी घरों में स्वादिष्ट व्यंजन बनते थे एवं लोग एक-दूसरे के घरों में व्यंजनों का आदान-प्रदान करते थे। सावन में नीम की डालों पर लड़कियां स्वयं झूले डालकर झूलती थी इसके लिए झूले मंगाने नहीं पड़ते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे पर्वों एवं त्योहारों में "फन" भी खूब था एवं सभी आयु तथा वर्ग के लोग एक साथ मिलकर मनोरंजन करते थे। इससे समाज में समरसता का माहौल बना रहता था।
आज भी पर्व एवं त्योहारों का आयोजन होता है। लेकिन इन आयोजनों में समाज के सदस्यों की क्रियाशीलता समाप्त हो रही है। दूसरी ओर पाश्चात्य संगीत से प्रभावित मनोरंजन पूरी तरह से इन्द्रियों की उत्तेजना पर आधारित है। किसी भी प्रकार के नशे में मदमस्त होकर तेज आवाज एवं लाइट की चकाचैंध में शरीर को झकझोर कर थका देना मनोरंजन का दूसरा रूप है। मनोरंजन का एक उद्देश्य होता है- मन-मस्तिष्क को तरोताजा करना। इसके विपरीत मनोरंजन के पाश्चात्य साधन हमें तरोताजा करने की बजाय और थका देते हैं अगले दिन हम अपना काम उल्लास एवं ऊर्जा के साथ करने की बजाय और ज्यादा थके हुए महसूस करते हैं।
इसलिए अब पॉजिटिव इंटरटेनमेंट की आवश्यकता है, जिसमें फन, विचार और परिवार तीनों का बेहतर सामंजस्य हो। हमें पर्व एवं त्योहारों को इस अंदाज में आयोजित करने का प्रयास करना चाहिए कि एक परिवार के सभी सदस्या कम से कम तीन पीढ़ियां उसमें सम्मिलित होकर भरपूर मनोरंजन प्राप्त कर सकें। यदि युवा पीढ़ी एवं महिलाएं हमारे कार्यक्रमों में आना पसंद नहीं करती हैं, तो हमें यह समझना चाहिए कि हमारे कार्यक्रम में कहीं न कहीं कोई कमी है। इसके लिए हम महिलाओं एवं बच्चों को दोषी नहीं ठहरा सकते। समाज में सक्रिय सभी सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संस्थाओं को कोई भी कार्यक्रम तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसमें सदस्यों के लिए सपरिवार सम्मिलित होना अनिवार्य हो, साथ ही इस बात को भी सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं एवं बच्चों की सहभागिता वाले मनोरंजक कार्यक्रम हों। इन कार्यक्रमों के माध्यम से उसमें सम्मिलित होने वाले लोगों को कोई न कोई सद्विचार भी देने की कोशिश की जानी चाहिए। फन, विचार और परिवार के तालमेल से आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रम को हम सकारात्मक मनोरंजन की संज्ञा दे सकते हैं। इसके बाद हमारा मन-मस्तिष्क अगले दिन अपने रोजमर्रा के कार्यों में और तल्लीनता के साथ जुट जाता है, साथ ही पारिवारिक.सामाजिक सम्बन्धों में भी ताजगी का एहसास होता है।
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