Wednesday, February 17, 2010

क्या महिलाओं और पुरुषों में अंतर है??


आजकल पाचात्य संस्कृति एवं महिला के शक्तीकरण के नारों के बीच महिला एवं पुरुष में समानता की बहस उफान पर है। कई संगठनों द्वारा महिला अधिकारों को लेकर जागरूकता अभियान चलाते हुए यह साबित करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं कि भारत में महिलाओं को युगों-युगों से प्रताडि़त किया जाता रहा है। अतः अब महिलाओं को न्याय मिलना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में सीता, द्रौपदी एवं मीरा आदि से लेकर तमाम उदाहरण दिए जाते हैं। जहां तक भारतीय संस्कृति का प्रश्न है तो उसमें नारी को लक्ष्मी का दर्जा प्रदान किया गया है। नारी के सम्बन्ध में मनुस्मृति का लोक काफी चचिर्त भी हैः यत्र् नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र् देवता अथार्त जहां नारी का सम्मान किया जाता है, वहां देवता निवास करते हैं। भगवान शिव के अर्धनारीश्वर रूप में भी स्त्री एवं पुरुष को समान महत्व दिया गया है। भारतीय संस्कृति में कहीं भी नारी के प्रति असम्मान का भाव नहीं प्रदर्शित किया गया है।जहां तक प्रोफेशन की बात है तो आज महिलायें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र् में सफलतापूर्वक वह सभी कार्य कर रही हैं जिसे कुछ वर्ष पूर्व सिर्फ पुरुष ही किया करते थे। तो क्या इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि स्त्री एवं पुरुष में कोई अंतर नहीं है। अब क्या वास्तव में प्रत्येक प्रोफेशन में स्त्री-पुरुष को समान अवसर प्रदान करके ही उनको सम्मान एवं न्याय प्रदान किया जा सकता है? सवाल यह भी है कि क्या? घर- परिवार की देखभाल करना महिला का प्राथमिक दायित्व है या पुरुष के समान घर से बाहर निकलकर अपने कैरियर को ऊंचाइयों पर ले जाने में ही उसके जीवन की सफलता है?



यदि जीवन विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाये तो स्पष्ट होता है कि नारी का शारीर पुरुष की अपेक्षा कोमल होता है, उसके निर्णय मस्तिष्क की बजाय भावना से प्रभावित होते हैं। महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा अहं यानी इगो की समस्या कम होती है, पुरुष वह काम ज्यादा कुशलता से करता है जिसमें उसकी भूमिका आदेशात्मक होती है, महिला वह कार्य ज्यादा कुशलता से कर पाती है जिसमें उसकी भूमिका देखभाल (केपटिंग) एवं चीजों को सम्भालने की होती है। महिलाओं के मस्तिष्क की रचना इस प्रकार की होती है कि वह एक साथ कई कार्यों को कर सकती है जबकि पुरुष किसी भी कार्य को करते समय पूरी तरह उसी में तल्लीन होना पसंद करता है एवं उसमें व्यवधान उसे स्वीकार्य नहीं होता।इसके प्रमाण हमें बचपन में ही दिखाई देने लगते हैं। लड़कियां मुलायम खिलौनांे, गुडि़या इत्यादि से खेलना पसंद करती हैं जबकि लड़के भाग दौड़, मार-पीट एवं मेहनत वाले खेलों में ज्यादा रुचि प्रदर्शित करते हैं। स्त्री- पुरुष में शारीर विज्ञान की इस विभिन्नता के कारण ही भारतीय संस्कृति में घर ki देखभाल की जिम्मेदारी नारी को प्रदान की गई एवं घर की आवश्यकताओं की पूर्ति के संसाधन जुटाने का दायित्व पुरुषों को प्रदान किया गया।



अब सवाल उठने लगा कि घर की देखभाल करने की जिम्मेदारी महिला ही क्यों उठाये एवं पुरुष क्यों नहीं? यह सवाल उन लोगों द्वारा उठाये जाते हैं जो केवल स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं, यह सवाल उन देशों से आयातित है जहां परिवार एवं बच्चों की देखभाल से ज्यादा व्यक्तिगत उपलब्धियों को महत्व प्रदान किया जाता है, यह सवाल उन समाजों में उत्पन्न हुए जहां पति-पत्नी सम्बन्धों में पवित्रता एवं ईमानदारी की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती।यदि केवल समानता को ही लक्ष्य माना जाए तो स्त्री एवं पुरुष वे सभी कार्य कर सकते हैं जो आज सिर्फ महिलाओं अथवा पुरुषों द्वारा किए जाते हैं। एक जनन कार्य ही ऎसा है जिसे सिर्फ स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। उदाहरण के लिए पुरुष घर में भोजन बना सकता है एवं महिला खेत में हल चला सकती है लेकिन सवाल यह है कि यह कार्य मजबूरी में करना पसंद करेंगे अथवा रुचि के साथ, तो जवाब आसानी से मिल जायेगा।



मानव समाज द्वारा जो भी जीवन मूल्य एवं सिद्धान्त बनाए जाते हैं उसका प्रमुख उद्देश्य प्रसन्नता एवं आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करना है इस उद्देश्य की पूर्ति स्त्री-पुरुष को समान अधिकार प्रदान करके नहीं बल्कि उनकी रुचि एवं योग्यता के अनुसार कार्य प्रदान करके ही हो सकती है।तात्पर्य यह है कि आवश्यकता पड़ने पर नारी कोई भी कार्य करने में सक्षम है। वह इंदिरा गांधी के समान देश का शासन भी कर सकती है एवं लक्ष्मीबाई के समान अपनी प्रजा को बचाने के लिए घोड़े पर बैठकर तलवार भी चला सकती है। नारी किसी भी रुप में कोई भी कार्य करने में पुरुष से पीछे नहीं है लेकिन इसके आधार पर समाज पुरुष एवं महिला को समान मानते हुए इसके मौलिक स्वभाव एवं रुचि की उपेक्षा नहीं कर सकता ही समानता प्रदान करने के फेर में परिवार जैसी संस्था को बरबाद करने की अनुमति प्रदान कर सकता है। स्त्री एवं पुरुष परिवार रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं एवं किसी भी पहिए के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। तात्पर्य यह है कि स्त्री एवं पुरुष के स्वभाव, आचरण, रुचि में जो अंतर है वह परिवार रूपी संस्था को संचालित करने के लिए अत्यंत आवश्यक है उसको समान सिद्ध करने अथवा समान बनाने के प्रयास नहीं किए जाने चाहिए।

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